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शेर
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
शेर
जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
हम सरगुज़िश्त क्या कहें अपनी कि मिस्ल-ए-ख़ार
पामाल हो गए तिरे दामन से छूट कर
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
शेर
दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे
क़त्ल-गह थी जिसे हम महफ़िल-ए-याराँ समझे
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
मैं सफ़र में हूँ मगर सम्त-ए-सफ़र कोई नहीं
क्या मैं ख़ुद अपना ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हूँ क्या हूँ
अख़्तर सईद ख़ान
शेर
खुल गया अब ये कि वस्ल उस का ख़याल-ए-ख़ाम है
आज उम्मीदों का दिल ही दिल में क़त्ल-ए-आम है
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
गुल है कि इक आईना सर-ए-राह पड़ा है
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है