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शेर
हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे
अकबर इलाहाबादी
शेर
दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह
दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
अपना तो ये मज़हब है काबा हो कि बुत-ख़ाना
जिस जा तुम्हें देखेंगे हम सर को झुका देंगे
बेदम शाह वारसी
शेर
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी
सीमाब अकबराबादी
शेर
कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
शमीम अब्बास
शेर
दोस्त ने दिल को तोड़ के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दिया
समझे थे हम जिसे ख़लील काबा उसी ने ढा दिया
आरज़ू लखनवी
शेर
नहीं दैर ओ हरम से काम हम उल्फ़त के बंदे हैं
वही काबा है अपना आरज़ू दिल की जहाँ निकले
असग़र गोंडवी
शेर
हम इश्क़ के बंदे हैं मज़हब से नहीं वाक़िफ़
गर का'बा हुआ तो क्या बुत-ख़ाना हुआ तो क्या
आसिफ़ुद्दौला
शेर
दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
ढूँढने से भी तो बंदों को ख़ुदा मिलता नहीं