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शेर
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
जहाँ बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है
असग़र गोंडवी
शेर
ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
एक पत्थर पूजने को शैख़ जी काबे गए
'ज़ौक़' हर बुत क़ाबिल-ए-बोसा है इस बुत-ख़ाने में
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
तसव्वुर में तुझे ज़ौक़-ए-हम-आग़ोशी ने भींचा था
बहारें कट गई हैं आज तक पहलू महकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़ मेरे अश्क-ए-ग़म की तर्जुमानी है
कोई कहता है मोती है कोई कहता है पानी है
फ़िगार उन्नावी
शेर
मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे
ये कम-निगाहियाँ तिरी बज़्म-ए-शराब में
मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा
शेर
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
हुस्न ख़ुद बे-ताब है जल्वा दिखाने के लिए