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परिणाम "दाग़-ए-अलम"
दीं क्यों कि न वो दाग़-ए-अलम और ज़ियादाक़ीमत में बढ़े दिल के दिरम और ज़ियादा
हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गएऔर होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
मैं भी हैरान हूँ ऐ 'दाग़' कि ये बात है क्यावादा वो करते हैं आता है तबस्सुम मुझ को
इस वहम में वो 'दाग़' को मरने नहीं देतेमाशूक़ न मिल जाए कहीं ज़ेर-ए-ज़मीं और
ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आयावही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का
क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरतक्या तुम ने कभी 'दाग़' का दीवाँ नहीं देखा
हज़रत-ए-'दाग़' है ये कूचा-ए-क़ातिल उठिएजिस जगह बैठते हैं आप तो जम जाते हैं
इस क़दर महव न हों आप ख़ुद-आराई मेंदाग़ लग जाए न आईना-ए-यकताई में
शजर ने पूछा कि तुझ में ये किस की ख़ुशबू हैहवा-ए-शाम-ए-अलम ने कहा उदासी की
सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी हैइक गौहर-ए-नायाब मिरे हाथ लगा है
हम गर्दिश-ए-गिर्दाब-ए-अलम से नहीं डरतेतूफ़ाँ है अगर आज किनारा भी तो होगा
इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगेइक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न होमुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुईइक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार यादमुझ से मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग
किताब ज़ीस्त में बाब-ए-अलम भी हो महफ़ूज़सियाह-रात का मंज़र सहर में रक्खा जाए
जफ़ा ओ जौर-ए-मुसलसल वफ़ा ओ ज़ब्त-ए-अलमवो इख़्तियार तुम्हें है ये इख़्तियार मुझे
निगार-ख़ाना-ए-हिकमत कलीद-ए-बाब-ए-जुनूँअमीन-ए-सुब्ह-ए-मसर्रत रईस-ए-शाम-ए-अलम
ग़म से निस्बत है जिन्हें ज़ब्त-ए-अलम करते हैंअश्क को ज़ीनत-ए-दामाँ नहीं होने देते
सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोलेऔर भी कोई फ़साना है तुम्हें याद कि बस
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