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शेर
लहू जिगर का हुआ सर्फ़-ए-रंग-ए-दस्त-ए-हिना
जो सौदा सर में था सहरा खंगालने में गया
अमीर हम्ज़ा साक़िब
शेर
दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे
क़त्ल-गह थी जिसे हम महफ़िल-ए-याराँ समझे
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
चूम कर आया है ये दस्त-ए-हिनाई आप का
क्यूँ न रक्खूँ मैं कलेजे से लगा कर तीर को
शेर सिंह नाज़ देहलवी
शेर
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
कुछ ऐसी बन गई तस्वीर उस के दस्त-ए-क़ुदरत से
रहा हैराँ बना कर आप सूरत-आफ़रीं बरसों
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
चुभेंगे ज़ीरा-हा-ए-शीशा-ए-दिल दस्त-ए-नाज़ुक में
सँभल कर हाथ डाला कीजिए मेरे गरेबाँ पर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
दुआएँ माँगी हैं साक़ी ने खोल कर ज़ुल्फ़ें
बसान-ए-दस्त-ए-करम अब्र-ए-दजला-बार बरस
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
पाया-ए-तख़्त-ए-सुलैमाँ का है शाएर 'मुसहफ़ी'
है उसी के ख़ातिम-ए-दस्त-ए-सुलैमाँ हाथ में