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शेर
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं
अकबर इलाहाबादी
शेर
यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग
यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
मिरा घर जलाने वाले मुझे फ़िक्र है तिरी भी
कि हवा का रुख़ जो बदला तिरा घर भी जल न जाए