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शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है
हज़ारों हैं सफ़ें जिन में न मय आई न जाम आया
आनंद नारायण मुल्ला
शेर
ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
शेर
ज़ेर-ए-मस्जिद मय-कदा मैं मय-कदे में मस्त-ए-ख़्वाब
चौंक उठा जब दी मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ बाला-ए-सर
रियाज़ ख़ैराबादी
शेर
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
मय-फ़रोश आज दर-ए-मय-कदा क्यूँ वा करता