aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "सँभालता"
हम को सँभालता कोई क्या राह-ए-इश्क़ मेंखा खा के ठोकरें हमीं आख़िर सँभल गए
दिल थामता कि चश्म पे करता तिरी निगाहसाग़र को देखता कि मैं शीशा सँभालता
अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज सेलेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभीकुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
दिल को सँभाले हँसता बोलता रहता हूँ लेकिनसच पूछो तो 'ज़ेब' तबीअत ठीक नहीं होती
मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थामनज़रों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला
कौन जीने के लिए मरता रहेलो सँभालो अपनी दुनिया हम चले
ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगाऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखेंअपने हाथों की लकीरों से उलझ जाती हैं
अश्क-ए-ग़म दीदा-ए-पुर-नम से सँभाले न गएये वो बच्चे हैं जो माँ बाप से पाले न गए
ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगाअपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी
हर सदा पर लगे हैं कान यहाँदिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह
अब आप की मर्ज़ी है सँभालें न सँभालेंख़ुशबू की तरह आप के रूमाल में हम हैं
मुझे सँभालने में इतनी एहतियात न करबिखर न जाऊँ कहीं मैं तिरी हिफ़ाज़त में
उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए
अब आ गई है सहर अपना घर सँभालने कोचलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ
बे-साख़्ता बिखर गई जल्वों की काएनातआईना टूट कर तिरी अंगड़ाई बन गया
रेत बन कर मिरी मुट्ठी से फिसल जाती हैअब मोहब्बत भी सँभाली नहीं जाती मुझ से
ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलनवही सोची हुई चालें वही बे-साख़्ता-पन
जैसे हो उम्र भर का असासा ग़रीब काकुछ इस तरह से मैं ने सँभाले तुम्हारे ख़त
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