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शेर
बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र'
क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
ज़ाहिदो पूजा तुम्हारी ख़ूब होगी हश्र में
बुत बना देगी तुम्हें ये हक़-परस्ती एक दिन
मुनीर शिकोहाबादी
शेर
जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले
कभी नीचे भी नज़रें डाल ऊँचे आसमाँ वाले
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
जहाँ जावें वहाँ इक आध को हम ताक रहते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मज़ाक़-ए-ख़ुद-परस्ती एक कमज़ोरी है इंसाँ की
बयाँ कर के हक़ीक़त ये उठाया है ज़ियाँ हम ने
माया खन्ना राजे बरेलवी
शेर
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
क्या तमाशा दार पर मंसूर ने नट का किया