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शेर
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
क्या सैद भागता है रिहा हो के दाम से
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर
दे ले साक़ी हम को मय ये अब्र-ए-बाराँ फिर कहाँ
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
शेर
रोया तमाम उम्र वो शबनम के साथ साथ
फिर क्यों कहूँ कि दर्द-ए-गुल-ए-तर में कुछ न था
क़मर रईस बहराइची
शेर
सरवत हुसैन
शेर
अश्क क़ाबू में नहीं राज़ छुपाऊँ क्यूँकर
दुश्मनी मुझ से मिरे दीदा-ए-तर रखते हैं