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शेर
अभी तो हज़रत-ए-वाइज़ मज़म्मत मय की करते हैं
अगर मय-ख़ाने में उन का गुज़र होगा तो क्या होगा
शौक़ बहराइची
शेर
भला 'शौक़' देखूँ क्यूँकर रुख़-ए-पुर-शिकन का मंज़र
मिरे दाँत ही कहाँ हैं जो मैं खा सकूँ छुआरा
शौक़ बहराइची
शेर
हमारे रहबरान-क़ौम-ओ-मिल्लत 'शौक़' क्या कम हैं
वतन में गर न कोई बारबर होगा तो क्या होगा
शौक़ बहराइची
शेर
तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले
राम रियाज़
शेर
जिस कू में हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
वो कूचा क्यूँके रू-कश-ए-चीन-ओ-चगिल न हो