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शेर
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
सुब्ह को बिखरे हुए देखे थे इक दिन मू-ए-दोस्त
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मस्जिद अबरू में तेरी मर्दुमुक है जिऊँ इमाम
मू-ए-मिज़्गाँ मुक़तदी हो मिल के करते हैं नमाज़
सिराज औरंगाबादी
शेर
गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात
लेकिन अपनी तो इसी ज़ुल्मात से थी ज़िंदगी
नज़ीर अकबराबादी
शेर
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
सुब्ह-ए-सादिक़ देती है झूटी गवाही रात की
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
दौड़ता है चाह की जानिब ही प्यासा धूप में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
इन रोज़ों हिज्र की सिल ये भारी हो गई है