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शेर
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
बरहमन दैर से का'बे से मुसलमाँ निकला
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
कि घर में फिरते हैं हम अपनी जुस्तुजू करते