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शेर
ता-सुब्ह मिरी आह-ए-जहाँ-सोज़ से कल रात
क्या गुम्बद-ए-अफ़्लाक ये हम्माम सा था गर्म
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
सुब्ह गर सुब्ह-ए-क़यामत हो तो कुछ पर्वा नहीं
हिज्र की जब रात ऐसी बे-क़रारी में कटी