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शेर
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में
साइमा इसमा
शेर
हमारे काबा-ए-दिल में बुतों की याद बस्ती है
बड़ा अंधेर है घर में ख़ुदा के बुत-परस्ती है
लाला माधव राम जौहर
शेर
तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
ये मूसा दौड़ कर किस को दिखाने शम्अ' तूर आए
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
क्या कहें अपनी सियह-बख़्ती ही का अंधेर है
वर्ना सब की हिज्र की रात ऐसी काली भी नहीं
रज़ा अज़ीमाबादी
शेर
ये बस्तियाँ हैं अंधेर-नगरी में रहने वाली
ये लोग वो हैं जो रौशनी से डरे हुए हैं