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शेर
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
बस्ता-ए-ज़ुल्फ़ कोई रफ़्ता-ए-रफ़्तार कोई
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में
टुकड़े जो मिरे दिल के बस्ते हैं दो-आबे में
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं
अल्लामा इक़बाल
शेर
किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं
टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है
सिराज फ़ैसल ख़ान
शेर
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहाँ मातम भी होता है
दाग़ देहलवी
शेर
भोले बन कर हाल न पूछ बहते हैं अश्क तो बहने दो
जिस से बढ़े बेचैनी दिल की ऐसी तसल्ली रहने दो
आरज़ू लखनवी
शेर
ग़म मुझे देते हो औरों की ख़ुशी के वास्ते
क्यूँ बुरे बनते हो तुम नाहक़ किसी के वास्ते