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शेर
क़दम यूँ बे-ख़तर हो कर न मय-ख़ाने में रख देना
बहुत मुश्किल है जान ओ दिल को नज़राने में रख देना
वासिफ़ देहलवी
शेर
क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
शेर
तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है
जो मुझी को मुझ से बहम करे वो गुरेज़-पा कोई और है
नसीर तुराबी
शेर
किसी से इश्क़ करना और इस को बा-ख़बर करना
है अपने मतलब-ए-दुश्वार को दुश्वार-तर करना