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शेर
तअस्सुब बर-तरफ़ मस्जिद हो या हो कू-ए-बुत-ख़ाना
रह-ए-दिलदार पर जाता क़दम यूँ भी है और यूँ भी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
शेर
हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
अपना तो ये मज़हब है काबा हो कि बुत-ख़ाना
जिस जा तुम्हें देखेंगे हम सर को झुका देंगे
बेदम शाह वारसी
शेर
न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
लड़ाना ख़ूब आता है तुम्हें शैख़ ओ बरहमन को
मिर्ज़ा मायल देहलवी
शेर
जो है काबा वो ही बुत-ख़ाना है शैख़ ओ बरहमन
इस की नाहक़ करते हो तकरार दोनों एक हैं
जोशिश अज़ीमाबादी
शेर
न काबा है यहाँ मेरे न है बुत-ख़ाना पहलू में
लिया किस घर बसे ने आह आ कर ख़ाना पहलू में
रज़ा अज़ीमाबादी
शेर
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न बुत-ख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ ख़ुदा जाने कहाँ जाते
क़तील शिफ़ाई
शेर
जल्वा-गर था हर जगह का'बा था या बुत-ख़ाना था
घर हज़ारों थे मगर वो एक साहब-ख़ाना था