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शेर
हर भगवान शाद
शेर
ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं
उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
शेर
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
फिर इक जुनूँ के नए सिलसिले हुए दिल में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ
नज़ीर अकबराबादी
शेर
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त
नज़ीर अकबराबादी
शेर
राह आसाँ देख कर सब ख़ुश थे फिर मैं ने कहा
सोच लीजे एक अंदाज़-ए-नज़र मेरा भी है