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शेर
शबनमी क़तरे गुल-ए-लाला पे थे रक़्स-कुनाँ
बर्फ़ के टुकड़े भी देखे गए अँगारों में
महफूजुर्रहमान आदिल
शेर
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-लाला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-ला'ला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है
मह लक़ा चंदा
शेर
अहमद हुसैन माइल
शेर
अभी तक फ़स्ल-ए-गुल में इक सदा-ए-दर्द आती है
वहाँ की ख़ाक से पहले जहाँ था आशियाँ मेरा
जगत मोहन लाल रवाँ
शेर
किताब-ए-ख़ाक पढ़ी ज़लज़ले की रात उस ने
शगुफ़्त-ए-गुल के ज़माने में वो यक़ीं लाया