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शेर
बसंत आई है मौज-ए-रंग-ए-गुल है जोश-ए-सहबा है
ख़ुदा के फ़ज़्ल से ऐश-ओ-तरब की अब कमी क्या है
मह लक़ा चंदा
शेर
भर के साक़ी जाम-ए-मय इक और ला और जल्द ला
उन नशीली अँखड़ियों में फिर हिजाब आने को है
फ़ानी बदायुनी
शेर
मिरे दिल से कभी ग़ाफ़िल न हों ख़ुद्दाम-ए-मय-ख़ाना
ये रिंद-ए-ला-उबाली बे-पिए भी तो बहकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या
कीजिए शग़्ल-ए-मय-कशी इस में किसी की राय क्यूँ
नातिक़ गुलावठी
शेर
तिश्ना-लबी रहीन-ए-मय-ए-तल्ख़ है तो क्या
शीरीनी-ए-हयात की लज़्ज़त कहाँ से लाएँ