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शेर
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़िल्मान-ए-महर साथ लिए आई हूर-ए-सुब्ह
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
मलक को देव को जिन को परी को हूर ओ ग़िल्माँ को
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
तिरे कूचे में कोई हूर आ जाती तो मैं कहता
कि वो जन्नत तो क्या जन्नत है जन्नत ऐसी होती है
आशिक़ अकबराबादी
शेर
वाइ'ज़ो हम रिंद क्यूँ-कर काबिल-ए-जन्नत नहीं
क्या गुनहगारों को मीरास-ए-पिदर मिलती नहीं
इमदाद अली बहर
शेर
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
शेर
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
ग़म-ए-दीं भी अगर समझो तो इक धंदा है दुनिया का
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
शेर
जाने क्यूँ दोज़ख़ से बद-तर हो गए हालात आज
रश्क-ए-जन्नत कल तलक हिन्दोस्ताँ मेरा भी था
नवाब शाहाबादी
शेर
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
कि घर में फिरते हैं हम अपनी जुस्तुजू करते