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शेर
क़दम क़दम पे दोनों जुर्म-ए-इश्क़ में शरीक हैं
नज़र को बे-ख़ता कहूँ कि दिल को बे-ख़ता कहूँ
फ़िगार उन्नावी
शेर
बे-हिस-ओ-हैराँ जो हूँ घर में पड़ा इस के एवज़
काश मैं नक़्श-ए-क़दम होता किसी की राह का
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
हम दिवानों का ये है दश्त-ए-जुनूँ में रुत्बा
कि क़दम रखते ही आ पाँव से हर ख़ार लगा