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शेर
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
कलीम आजिज़
शेर
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
शेर
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
हम ने ख़्वाबों की मिट्टी से पाटा है इस खाई को