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शेर
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले
अल्लामा इक़बाल
शेर
कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
शेर
सैंकड़ों दिलकश बहारें थीं हमारी मुंतज़िर
हम तिरी ख़्वाहिश में लेकिन ठोकरें खाते रहे