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शेर
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
अल्लामा इक़बाल
शेर
बस नहीं चलता है वर्ना अपने मर जाने के साथ
फेंक देते खोद कर दुनिया की सब बुनियाद हम
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
शेर
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
फेंक दूँगा खोद कर गुलज़ार की दीवार को
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा
वसीम बरेलवी
शेर
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
ख़ुमार बाराबंकवी
शेर
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ