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शेर
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
इश्क़ कर के 'मुसहफ़ी' तू कीमिया-गर हो गया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
हम उन के सितम को भी करम जान रहे हैं
और वो हैं कि इस पर भी बुरा मान रहे हैं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
हफ़्ते में हैं दिन सात मगर सात दिनों में
सिर्फ़ एक ही इतवार है मालूम नहीं क्यूँ
किशन लाल ख़न्दां देहलवी
शेर
उठा सुराही ये शीशा वो जाम ले साक़ी
फिर इस के बाद ख़ुदा का भी नाम ले साक़ी
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
मरना तो लाज़िम है इक दिन जी भर के अब जी तो लूँ
मरने से पहले मर जाना मेरे बस की बात नहीं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
शोख़ी शबाब हुस्न तबस्सुम हया के साथ
दिल ले लिया है आप ने किस किस अदा के साथ
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
फिर इस के बाद हमें तिश्नगी रहे न रहे
कुछ और देर मुरव्वत से काम ले साक़ी
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
ज़िंदगी मौत बन गई होती जान से हम गुज़र गए होते
इतने इशरत-ज़दा हैं हम कि अगर ग़म न होता तो मर गए होते
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
किसी इक-आध मय-कश से ख़ता कुछ हो गई होगी
मगर क्यूँ मय-कदे का मय-कदा बद-नाम है साक़ी
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
इश्क़ ओ मोहब्बत क्या होते हैं क्या समझाऊँ वाइज़ को
भैंस के आगे बीन बजाना मेरे बस की बात नहीं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
इन शोख़ हसीनों की निराली है अदा भी
बुत हो के समझते हैं कि जैसे हैं ख़ुदा भी