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शेर
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
ख़ुद अपनी लौह-ए-तमन्ना पे खिल के देखूँगा
किसी के जब्र ने लिक्खा था राएगाँ मुझ को
अबुल हसनात हक़्क़ी
शेर
कहीं आँसुओं से लिखा हुआ कहीं आँसुओं से मिटा हुआ
लौह-ए-दिल पे जिस के निशान हैं वही एक नाम क़ुबूल है