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शेर
मग़रिब मुझे खींचे है तो रोके मुझे मशरिक़
धोबी का वो कुत्ता हूँ कि जो घाट न घर का
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
शेर
डराएगी हमें क्या हिज्र की अँधेरी रात
कि शम्अ' बैठे हैं पहले ही हम बुझाए हुए
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
शेर
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
वही ज़माना में कुछ इख़्तियार रखते हैं
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
शेर
तिरा आना मिरे घर हो गया घर ग़ैर के जाना
मुझे मालूम थी इस ख़्वाब की ता'बीर पहले से
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
शेर
ज़ाहिद मिरी समझ में तो दोनों गुनाह हैं
तू बुत-शिकन हुआ जो मैं तौबा-शिकन हुआ