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शेर
इब्तिदा वो थी कि जीना था मोहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
जिगर मुरादाबादी
शेर
सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
मेरे ख़ुलूस ने मिरा जीना मुहाल कर दिया