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शेर
मस्जिद अबरू में तेरी मर्दुमुक है जिऊँ इमाम
मू-ए-मिज़्गाँ मुक़तदी हो मिल के करते हैं नमाज़
सिराज औरंगाबादी
शेर
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
सुब्ह को बिखरे हुए देखे थे इक दिन मू-ए-दोस्त
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
सुब्ह-ए-सादिक़ देती है झूटी गवाही रात की
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
रुख़ से लहरा कर ज़नख़दाँ के हैं माइल मु-ए-ज़ुल्फ़
दौड़ता है चाह की जानिब ही प्यासा धूप में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
क्या सैद भागता है रिहा हो के दाम से
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
ग़ज़ब है रूह से इस जामा-ए-तन का जुदा होना
लिबास-ए-तंग है उतरेगा आख़िर धज्जियाँ हो कर