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शेर
जो कुछ पड़ती है सर पर सब उठाता है मोहब्बत में
जहाँ दिल आ गया फिर आदमी मजबूर होता है
लाला माधव राम जौहर
शेर
आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
आस बिखरने पर सब चीज़ें ख़ुद ही उठा के रखता हूँ
अजमल सिद्दीक़ी
शेर
जब मैं कहता हूँ कि नादिम हो कुछ अपने ज़ुल्म पर
सर झुका कर कहते हैं शर्म-ओ-हया से क्या कहें
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
शेर
बहार-ए-हुस्न ये दो दिन की चाँदनी है हुज़ूर
जो बात अब की बरस है वो पार साल नहीं