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शेर
निकालूँ किस तरह सीने से अपने तीर-ए-जानाँ को
न पैकाँ दिल को छोड़े है न दिल छोड़े है पैकाँ को
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
क्या कहें क्या क्या किया तेरी निगाहों ने सुलूक
दिल में आईं दिल में ठहरीं दिल में पैकाँ हो गईं
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
वो कमसिन हैं उन्हें मश्क़-ए-सितम को चाहिए मुद्दत
अभी तो नाम सुन कर ख़ंजर-ओ-पैकाँ का डरते हैं
हाज़िक़
शेर
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
ग़ुंचे आते हैं नज़र सूरत-ए-पैकाँ मुझ को
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
न खींच ऐ मेहरबाँ सीने से मेरे तीर रहने दे
निकल जाएगा दम मेरा जो पैकाँ दिल से निकलेगा
नसीम नूर महली
शेर
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
अल्लामा इक़बाल
शेर
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें
जो हो ज़ौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती हैं ज़ंजीरें