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शेर
ज़ि-बस काफ़िर-अदायों ने चलाए संग-ए-बे-रहमी
अगर सब जम'अ करता मैं तो बुत-ख़ाने हुए होते
सिराज औरंगाबादी
शेर
यहाँ तो दाग़-ए-ख़ूँ दामन से धोया तू ने ऐ क़ातिल
वहाँ इक दिन खिलेगा गुल हमारी बे-गुनाही का
मारूफ़ देहलवी
शेर
मिरी 'आशिक़ी सही बे-असर तिरी दिलबरी ने भी क्या किया
वही मैं रहा वही बे-दिली वही रंग-ए-लैल-ओ-नहार है
ए. डी. अज़हर
शेर
इसी ख़ातिर तो क़त्ल-ए-आशिक़ाँ से मनअ' करते थे
अकेले फिर रहे हो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ हो कर