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शेर
दौलत-ए-फ़क़्र-ओ-फ़ना से हैं तवंगर हम लोग
जूतियाँ मारें हैं इक़बाल के सर पर हम लोग
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
काफ़िर फ़िरंगियों ने ब-तदबीर खींच ली