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शेर
सियाही आँख से ले कर ये नामा तुम को लिखता हूँ
कि तुम नामे को देखो और तुम्हें देखें मिरी आँखें
अज्ञात
शेर
अजब की साहिरी उस मन-हरन की चश्म-ए-फ़त्ताँ ने
दिया काजल सियाही ले के आँखों से ग़ज़ालाँ की
मीर मोहम्मदी बेदार
शेर
सुब्ह होती है तो कुंज-ए-ख़ुश-गुमानी में कहीं
फेंक दी जाती है शब भर की सियाही बाँध कर
ख़ावर जीलानी
शेर
वो समझ तो लें कि यूँ है उन्हें इस से क्या कि क्यूँ है
मिरी आँखों की ये सुर्ख़ी मिरे होंटों की सियाही
फ़य्याज़ अस्वद
शेर
शब-ए-हिज्राँ क्या सियाही न हुई रोज़-ए-सफ़ेद
ये वरक़ तू ने न ऐ गर्दिश-ए-अय्याम उल्टा