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ग़ज़ल
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
पुर्सिश-ए-तर्ज़-ए-दिलबरी कीजिए क्या कि बिन कहे
उस के हर एक इशारे से निकले है ये अदा कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
'इश्क़ की चोट दिखाने में कहीं आती है
कुछ इशारे थे कि जो लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तुम्हारे हर इशारे पर सर-ए-तस्लीम ख़म लेकिन
गुज़ारिश है कि जज़्बात-ए-मोहब्बत को ज़रा समझो