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ग़ज़ल
मिरी दास्ताँ का उरूज था तिरी नर्म पलकों की छाँव में
मिरे साथ था तुझे जागना तिरी आँख कैसे झपक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
बशीर बद्र
ग़ज़ल
उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं
कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूँ
उरूज-ए-फ़न मिरी दहलीज़ पर उतार मुझे
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
मुझे धूप में तू क़रीब कर मुझे साया अपना नसीब कर
मिरी निकहतों को उरूज दे मुझे फूल जैसा वक़ार दे