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ग़ज़ल
एक ग़ज़ाल को दूर से देखा और ग़ज़ल तय्यार हुई
सहमे सहमे से लफ़्ज़ों में हल्की सी कस्तूरी थी
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
उस को छू कर लौट रहा हूँ महक रहा है जिस्म ऐसे
जैसे महक रही हो धूनी कस्तूरी और चंदन भी
विजय शर्मा
ग़ज़ल
दुआ अली
ग़ज़ल
जो है पास निछावर कर दूँ जंगल में महकारें भर दूँ
कस्तूरी की महक उड़ा दूँ शेर है दूर कछारों वाला
इक़तिदार जावेद
ग़ज़ल
उन पर भी हँसती थी दुनिया आवाज़ें कसती थी दुनिया
'जालिब' अपनी ही सूरत थे इश्क़ में जाँ से जाने वाले
हबीब जालिब
ग़ज़ल
फ़क़ीरान-ए-हरम के हाथ 'इक़बाल' आ गया क्यूँकर
मयस्सर मीर ओ सुल्ताँ को नहीं शाहीन-ए-काफ़ूरी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जुम्बिश-ए-दिल से हुए हैं उक़्दा-हा-ए-कार वा
कम-तरीं मज़दूर-ए-संगीं-दस्त है फ़रहाद याँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न देखें रू-ए-यक-दिल सर्द ग़ैर-अज़ शम-ए-काफ़ूरी
ख़ुदाया इस क़दर बज़्म-ए-'असद' गर्म-ए-तमाशा हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो राह-ए-ज़िंदगी में मुस्कुराना भूल जाता है
ग़रीबी जिस को अपनी ज़ुल्फ़ के पंजे में कसती है
क़मर अंजुम
ग़ज़ल
मिरी कमतरी की बिसात ही तिरी बरतरी की दलील है
मैं नशेब में न रहूँ अगर तू फ़राज़ तेरा दबा रहे