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ग़ज़ल
रात चश्म-ए-'राज़' पहरों अश्क बरसाती रही
खेल के शौक़ीन रोना किरकिरा करते रहे
ख़लील-उर-रहमान राज़
ग़ज़ल
खुले रखते हो दरवाज़े दरीचे बारहा तुम क्यों
सुनो दुनिया तमाशों की बड़ी शौक़ीन होती है
डॉ भावना श्रीवास्तव
ग़ज़ल
लगाया काजल-ए-इश्क़ उस ने जब शौक़ीन आँखों में
सिमट आईं सभी रंगीनियाँ रंगीन आँखों में
सय्यद शीबान क़ादरी
ग़ज़ल
शौक़-ए-नज़्ज़ारा में गरचे दिल था मेरा मुब्तला
उस को फिर तेरी तजल्ली ने किया शौक़ीन-तर
शकील हैदर
ग़ज़ल
सुख़न के शौक़ीन तो सुना है सनम भी हैं ना
सो इस त'अल्लुक़ से उन को हम मोहतरम भी हैं ना