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ग़ज़ल
गुमाँ तो क्या यक़ीं भी वसवसों की ज़द में होता है
समझना संग-ए-दर को संग-ए-दर आसाँ नहीं होता
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है
ज़िंदगी से ये मिरा दूसरा समझौता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना तो नहीं
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
हिज्र से हिजरत तलक हर दुख से समझौता किया
भीड़ में रह के भी मैं ने ख़ुद को तन्हा कर दिया
फ़ातिमा हसन
ग़ज़ल
ख़ुद से समझौता किया है ज़िंदगी के नाम पर
इस से बढ़ कर ज़िंदगी को प्यार कर सकता नहीं
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
इश्क़ के टूटे हुए रिश्तों का मातम क्या करें
ज़िंदगी आ तुझ से फिर इक बार समझौता करें
अख़्तर सईद ख़ान
ग़ज़ल
हुआ कश्मीर और पंजाब में अब तक न समझौता
इधर ये काँगड़ी माँगे उधर वो काँगड़ा समझे
बुलबुल काश्मीरी
ग़ज़ल
क्या समझते हो यक़ीं कर लेगी तुम कुछ भी कहो
सोच कर देना बयाँ होश्यार दुनिया हो गई