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ग़ज़ल
जिस बादल की आस में जोड़े खोल लिए हैं सुहागन ने
वो पर्बत से टकरा कर बरस चुका सहराओं में
बशीर बद्र
ग़ज़ल
तारों की उतरती है डोली और चाँदनी दुल्हन होती है
जिस रात में दो दिल मिलते हैं वो रात सुहागन होती है
अख़्तर आज़ाद
ग़ज़ल
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
'अख़्तर' इसे क़ज़ा ने सुहागन बना दिया
मुद्दत से जी रही थी कुँवारी ये ज़िंदगी