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ग़ज़ल
क़ल्ब ओ निगाह की ये ईद उफ़ ये मआल-ए-क़ुर्ब-ओ-दीद
चर्ख़ की गर्दिशें तुझे मुझ से छुपा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
तुझे हादसात-ए-पैहम से भी क्या मिलेगा नादाँ
तिरा दिल अगर हो ज़िंदा तो नफ़स भी ताज़ियाना