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ग़ज़ल
पियो कि मुफ़्त लगा दी है ख़ून-ए-दिल की कशीद
गिराँ है अब के मय-ए-लाला-फ़ाम कहते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
खींचे दिल-ए-इंसाँ को न वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम
अज़दर कोई गर उस को निगल जाए तो अच्छा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
तीरा-बख़्ती मिरी करती है परेशाँ मुझ को
तोहमत इस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम पे धर देती है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सुब्ह होती ही नहीं और नहीं कटती रात
रुख़ पे खोले वो कहीं ज़ुल्फ-ए-सियाह-फ़ाम न हो