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ग़ज़ल
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बे-कार समझते थे
उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
बुझते हुए दिए की लौ और भीगी आँख के बीच
कोई तो है जो ख़्वाबों की निगरानी करता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
लम्स की लौ में पिघलता हुज्रा-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
तुम भी होते तो अंधेरा देखने की चीज़ थी