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ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
अपने में ही किसी की हो रू-ब-रूई मुझ को
हूँ ख़ुद से रू-ब-रू हूँ हिम्मत नहीं है मुझ में
जौन एलिया
ग़ज़ल
हाए-री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हिज्र की आग में ऐ री हवाओ दो जलते घर अगर कहीं
तन्हा तन्हा जलते हों तो आग में आग मिला देना
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह-री मेराज-ए-शौक़
देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अल्लाह री गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है का'बा को इक पारसा के साथ