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ग़ज़ल
नहीं बे-हिजाब वो चाँद सा कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
वही मुंसिफ़ों की रिवायतें वही फ़ैसलों की इबारतें
मिरा जुर्म तो कोई और था प मिरी सज़ा कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हम पास से तुम को क्या देखें तुम जब भी मुक़ाबिल होते हो
बेताब निगाहों के आगे पर्दा सा ज़रूर आ जाता है