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ग़ज़ल
उजले कपड़ों में रहो या कि नक़ाबें डालो
तुम को हर रंग में ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है
मंज़र भोपाली
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जीवन के कोरे काग़ज़ पर जीना होगा तहरीरों में
उजले पन्नों पर स्याही से करनी होगी हर्फ़-आराई
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
बस्ती बस्ती घूम रहे हैं भीड़ भरे चौराहों पर
उजले उजले पहनाओं में चेहरे बदले क़ातिल लोग
आबिद अदीब
ग़ज़ल
तन पर तो उजले कपड़े थे लेकिन मन के काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूँ
देवमणि पांडेय
ग़ज़ल
अपने अपने नाम के उजले शीश-महल की ख़ैर मनाओ
हर शोहरत की मुट्ठी में हैं रुस्वाई के काले पत्थर
प्रेम वारबर्टनी
ग़ज़ल
हम ने देखा था उसे उजले दिनों में 'हम्माद'
जिन दिनों नींद थी और नींद में बेदारी थी
हम्माद नियाज़ी
ग़ज़ल
कैसे कैसे मैले हो कर वापस आते हैं 'माहिर'
लोग निकलते हैं जब घर से उजले उजले रहते हैं