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ग़ज़ल
क्या करें 'जावेद' इस बहरूपियों के दौर में
गुल को गुल काँटे को काँटा मानना मुश्किल हुआ
अब्दुल्लाह जावेद
ग़ज़ल
बुल-हवस में भी न था वो बुत भी हरजाई न था
फिर भी हम बहरूपियों को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई न था
सिद्दीक़ अफ़ग़ानी
ग़ज़ल
'नज़ीर' ऐसा जो चंचल दिलरुबा बहरूपिया होवे
तमाशा है फिर ऐसे शोख़ से सौदे का पट जाना