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ग़ज़ल
तेरे मिलने की ख़ुशी में कोई नग़्मा छेड़ूँ
या तिरे दर्द-ए-जुदाई का गिला पेश करूँ
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है
अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
मैं ने ऐसे ही गुनह तेरी जुदाई में किए
जैसे तूफ़ाँ में कोई छोड़ दे घर शाम के बा'द